•आज हम लोग जिस हिन्दी की बात करते है उस हिन्दी की स्वरूप तक पहुंचने के लिए लगभग 3500 साल की एक यात्रा करनी पड़ी है।
•शुरुवात कहाँ से होती है?
•शुरुवात होती है वैदिक संस्कृत से , इतिहासकार मानते है कि 1500 ई० पू० में आर्य भारत में आये और आर्यों के आने से भारत में वैदिक संस्कृत की शुरुवात हुई ।
•वैदिक संस्कृत (1500ई० पू० ) के बाद भाषाई विकास से लौकिक संस्कृत बनी।,
•लौकिक संस्कृत से प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ। इसी काल में पालि भाषा भी समानांतर रूप से प्रचलित हुई।,
•प्राकृत के बाद से एक नई भाषा जन्मी, उसका नाम है अपभ्रंश,
•अपभ्रंशमें से कौन-सा अपभ्रंश तो शौरसेनी अपभ्रंश,
•शौरसेनी अपभ्रंशकी कौन-सी उपभाषा तो पश्चिमी हिन्दी उपभाषा,
•पश्चिमी हिन्दी उपभाषाकी कौन-सी बोली तो खड़ी बोली,
•खड़ी बोली के आधार पर बनी हिन्दी को 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकृति दी, और यह निर्णय 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ।
हिन्दी भाषा का विकास क्रम (संक्षेप में):
वैदिक संस्कृत (1500 ई० पू० ) →लौकिक संस्कृत → प्राकृत (समानांतर पालि) → अपभ्रंश → शौरसेनी अपभ्रंश → पश्चिमी हिन्दी उपभाषा →खड़ी बोली ( आज खड़ी बोली ही हिन्दी के रूप में जानी जाती है।)
∆आइए अब हिंदी भाषा के विकास क्रम को विस्तार से जाने
भारतीय आर्य भाषाओं को तीन काल खंडों में बांटा जा सकता है।
( 1 ) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा ( 1500 ई० पू० – 500 ई० पू० )
( 2 ) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा ( 500 ई० पू० – 1000 ई० )
( 3 ) आधुनिक भारतीय आर्य भाषा ( 1000 ई० – अब तक )
( 1 ) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा
( 1500 ई० पू० – 500 ई० पू० )
•प्राचीन भारतीय आर्य भाषा संस्कृत है।
•संस्कृत को आर्य भाषा या देव भाषा भी कहते है।
•हिन्दी की आदि जननी संस्कृत है।
•प्राचीन भारतीय आर्य भाषा को दो भागों में बांटा गया है :
(1) वैदिक संस्कृत ( 1500 ई० पू०- 1000 ई० पू० )
(2) लौकिक संस्कृत ( 1000 ई० पू०- 500 ई० पू० )
(1)वैदिक संस्कृत (1500 ई० पू०- 1000 ई० पू० )
√ इसे वैदिकी, वैदिक, छन्दस , छान्दस आदि के नामों से जानी जाती है।
√ इसमें वेदों, पुराणों, उपनिषदों , वेदान्तों , उपवेदों आदि की रचना हुई।
√ इसमें कुल 52 ध्वनियाँ थी जिसमें से 13 स्वर एवं 39 व्यंजन थी ।
√ यह आम जन की भाषा नही थी।
√ यह सबसे कठिन भाषा थी।
√ वैदिक संस्कृत में रचनाकारों के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं है।
√ प्राचीन भारतीय आर्य भाषा वैदिक संस्कृत है।
(2) लौकिक संस्कृत ( 1000 ई०पू०- 500 ई०पू० )
√ लोक में प्रचलित संस्कृत को लौकिक संस्कृत कहते है।
√ पाणिनि ने लौकिक संस्कृत का व्याकरण अष्टाध्यायी ग्रंथ की रचना की।
√ इसमें लोक सम्बन्धित साहित्य की रचना होती थी।
√ इसमें आम जन से सम्बन्धित साहित्य लिखा जाता था।
√ यह आसान भाषा थी , वैदिक संस्कृत से ।
√ इसमें 48 ध्वनियाँ थी।
√ इसमें रचनाकारों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
( 2 ) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा
( 500 ई० पू० – 1000 ई० )
•मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा को तीन भागों में बांटा गया है :
(1)पालि ( 500 ई० पू०- प्रथम शताब्दी )
(2)प्राकृत( प्रथम शताब्दी – 500 ई०)
(3)अपभ्रंश( 500ई०- 1000 ई०)
(1)पालि ( 500 ई० पू०- प्रथम शताब्दी )
√ पालि को प्रथम देश भाषा भी कहते है।
√ पालि को प्रथम प्राकृत भी कहते है।
√ पालि को संस्कृत का अपभ्रंश भी कहते है।
√ पालि आम जन की भाषा थी।
√ गौतम बुद्ध ने अपना उपदेश पालि भाषा में दिये।
√ पालि को बुद्ध वचन भी कहा जाता है।
√ बौद्ध साहित्य त्रिपिटक भी पालि भाषा में लिखे गये।
√ सुत्तपिटक – गौतम बुद्ध के उपदेश से संबंधित है।
√ विनयपिटक – आचार-व्यवहार से संबंधित है।
√ अभिधम्मपिटक – दर्शन से संबंधित है।
(2)प्राकृत( प्रथम शताब्दी – 500 ई०)
√ प्राकृत को ही द्वितीय प्राकृत भी कहते है।
√ प्राकृत को द्वितीय देश भाषा भी कहते है।
√ प्राकृत भाषा का बोलबाला प्रथम शताब्दी से लेकर 500 ईस्वी तक रहा।
√ जैन साहित्य प्राकृत भाषा में लिखा गया ।
√ हेमचन्द्र जी को प्राकृत का पाणिनि कहा जाता है।
√ हेमचन्द्र जी ने प्राकृत का व्याकरण लिखा ।
(3) अपभ्रंश ( 500ई०- 1000 ई० )
✓ अपभ्रंश का अर्थ – भ्रष्ट होना या पथ से भटकना या बिगड़ा हुआ.
✓ कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश के अंतिम समय को और पुरानी हिंदी के शुरुआत के समय को ” अवहट्ट भाषा ” का उदय बताते है.
✓ अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी के बीच का जो समय है उसे अवहट्ट कहा जाता है।
✓ अवहट्ट ( 900 ई० -1100 ई० ) का समय 900 ई० से लेकर 1100 ई० तक माना जाता है।
✓ अवहट्ट को संक्रमणकालीन भाषा भी कहा जाता है।
✓ चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने अवहट्ट को पुरानी हिन्दी कहा है।
✓ डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अपभ्रंश के 7 प्रकार बताएँ है।
1. शौरसेनी अपभ्रंश
2. मागधी अपभ्रंश
3. अर्द्धमागधी अपभ्रंश
4. खस अपभ्रंश
5. पैशाची अपभ्रंश
6. ब्रांचड़ अपभ्रंश
7. महाराष्ट्री अपभ्रंश
1.शौरसेनी अपभ्रंश:
शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिन्दी , राजस्थानी हिन्दी एवं गुजराती भाषा का जन्म हुआ है।
2. मागधी अपभ्रंश:
मागधी अपभ्रंश से विहारी हिन्दी , बांग्ला , उड़िया , एवं असमिया भाषा का जन्म हुआ है।
3. अर्द्धमागधी अपभ्रंश:
अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी का जन्म हुआ है।
4. खस अपभ्रंश:
खस अपभ्रंश से पहाड़ी हिन्दी का जन्म हुआ है।
5. पैशाची अपभ्रंश:
पैशाची अपभ्रंश से लहंदा एवं पंजाबी भाषा का जन्म हुआ है।
6. ब्रांचड़ अपभ्रंश:
ब्रांचड़ अपभ्रंश से सिन्धी भाषा का जन्म हुआ है।
7. महाराष्ट्री अपभ्रंश:
महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी भाषा का जन्म हुआ है।
हिन्दी की उपभाषाएँ एवं हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ : 1927 में जार्ज ग्रियर्सन ने हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ एवं 17 बोलियाँ बताएँ है।
हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ है:
1.पश्चिमी हिन्दी
2.पूर्वी हिन्दी
3.राजस्थानी हिन्दी
4.पहाड़ी हिन्दी
5.बिहारी हिन्दी
हिन्दी की 17 बोलियाँ है:
(1)खड़ी बोली या कौरव (2) ब्रजभाषा (3) बुन्देली. (4)कन्नौजी
(5)हरियाणवी या बांगरु
(6)अवधी (7) बघेली (8) छत्तीसगढ़ी
(9) उत्तरी राजस्थानी ( मेवाती )
(10) दक्षिणी राजस्थानी ( मालवी )
(11) पश्चिमी राजस्थानी ( मारवाड़ी )
(12) पूर्वी राजस्थानी ( जयपुरी )
(13) गढ़वाली (14) कुमाऊँनी
(15)मैथिली (16)मगही (17)भोजपुरी
1.पश्चिमी हिन्दी:
पश्चिमी हिन्दी शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित है।
पश्चिमी हिन्दी की पाँच बोलियाँ है।
i.खड़ी बोली या कौरवी
ii.ब्रजभाषा
iii.बुन्देली
iv.कन्नौजी
v.हरियाणवी या बांगरु
2.पूर्वी हिन्दी:
पूर्वी हिन्दी अर्द्धमागधी अपभ्रंश से विकसित है।
पूर्वी हिन्दी की तीन बोलियाँ है:
i.अवधी ii.बघेली iii.छत्तीसगढ़ी
3.राजस्थानी हिन्दी:
राजस्थानी हिन्दी का जन्म शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है।
राजस्थानी हिन्दी की चार बोलियाँ है:
i. उत्तरी राजस्थानी ( मेवाती )
ii.दक्षिणी राजस्थानी ( मालवी )
iii.पश्चिमी राजस्थानी ( मारवाड़ी )
iv.पूर्वी राजस्थानी ( जयपुरी )
4.पहाड़ी हिन्दी:
पहाड़ी हिन्दी का जन्म खस अपभ्रंश से हुआ है।
पहाड़ी हिन्दी की दो बोलियाँ है:
i.गढ़वाली ii.कुमाऊँनी
5.बिहारी हिन्दी:
बिहारी हिन्दी का जन्म मागधी अपभ्रंश से हुआ है।
बिहारी हिन्दी की तीन बोलियाँ है
i.मैथिली ii.मगही iii.भोजपुरी
आधुनिक भारतीय आर्य भाषा (1000 ई० – अब तक)
•आधुनिक भारतीय आर्य भाषा को तीन भागों में बांटा गया है :
(1) प्राचीन हिंदी (1000 ई० – 1400 ई० )
(2) मध्यकालीन हिंदी (1400 ई० – 1850 ई०)
(3) आधुनिक हिंदी 1850 ई० – अब तक)
(1) प्राचीन हिंदी (1000 ई० – 1400 ई०) : मुख्य तथ्य
1. काल निर्धारण – हिंदी साहित्य के इतिहासकार इसे प्राचीन काल या वीरगाथा काल कहते हैं, जिसकी सीमा 1000 ई० से 1400 ई० तक मानी जाती है।
2. भाषा का स्वरूप – इस काल की हिंदी अपभ्रंश से विकसित हुई थी। इसकी भाषा आधुनिक हिंदी की अपेक्षा कठिन, किंतु तत्कालीन जनजीवन के निकट थी।
3. साहित्यिक प्रवृत्ति – साहित्य का प्रमुख विषय वीरता, युद्ध, शौर्यगाथाएँ तथा धार्मिक शिक्षा था।
4. वीरगाथा काव्य – इस काल का अधिकांश साहित्य वीर रस से परिपूर्ण है। प्रमुख ग्रंथ है – पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई)।
5. प्रमुख कवि –
•चंदबरदाई (पृथ्वीराज रासो)
•जगनिक (अल्हाखंड)
•नाथपंथी कवि (गोरखनाथ, जयनारायण आदि)
•जैन कवि (हेमचंद्र, पद्मनंदन)
6. धार्मिक साहित्य – जैन साहित्य, नाथपंथी साहित्य और संत साहित्य की प्रारंभिक झलक इसी काल में दिखती है।
7. लिपि – देवनागरी और नागरी लिपियों में लेखन हुआ।
8. भाषाई क्षेत्र – ब्रज, अवधी, राजस्थानी और बुंदेलखंडी बोलियों में साहित्य की रचना अधिक हुई।
9. सांस्कृतिक महत्व – इस काल का साहित्य तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन का प्रतिबिंब प्रस्तुत करता है।
10. ऐतिहासिक भूमिका – इस काल ने हिंदी साहित्य को एक पहचान दी और आगे चलकर भक्ति काल तथा रीति काल के लिए नींव रखी।
मध्यकालीन हिंदी (1400 ई० – 1850 ई०) के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं –
1. काल विभाजन – हिंदी साहित्य का मध्यकाल मुख्यतः 1400 ई० से 1850 ई० तक माना जाता है। इसे भक्ति काल और रीति काल में बाँटा गया है।
2. भक्ति काल (1400–1700 ई०) – इस काल में भक्ति आंदोलन के प्रभाव से भक्ति भावनाओं पर आधारित साहित्य की रचना हुई। संतों और भक्त कवियों ने समाज को जोड़ने का कार्य किया।
3. संत काव्यधारा – कबीर, रैदास, दादू, नामदेव, मलूकदास आदि कवियों ने निर्गुण भक्ति को बल दिया और जाति-पाँति तथा आडंबरों का विरोध किया।
4. सूफी काव्यधारा – जायसी, रसखान, कुतुबन, मंझन आदि कवियों ने प्रेम और मानवता का संदेश दिया। पद्मावत (जायसी) इसका प्रमुख ग्रंथ है।
5. सगुण भक्ति धारा – तुलसीदास (रामचरितमानस), सूरदास (सूरसागर), मीराबाई आदि कवियों ने भगवान राम और कृष्ण की भक्ति का गान किया।
6. रीति काल (1700–1850 ई०) – इस काल में काव्य का मुख्य विषय श्रृंगार और नायिका-भेद रहा। भाषा अधिक परिष्कृत और शास्त्रीय हो गई।
7. प्रमुख रीतिकालीन कवि – बिहारी (सतसई), केशवदास, पद्माकर, देव, घनानंद आदि।
8. भाषाई स्वरूप – अवधी, ब्रजभाषा और खड़ीबोली इस काल की प्रमुख बोलियाँ थीं। भक्ति काल में अवधी व ब्रज का महत्व रहा, जबकि रीतिकाल में ब्रजभाषा प्रमुख रही।
9. सामाजिक प्रभाव – इस काल का साहित्य समाज में धार्मिक सहिष्णुता, नैतिक शिक्षा और प्रेमभाव फैलाने में सहायक रहा।
10. आधुनिक काल की भूमिका – मध्यकालीन हिंदी साहित्य ने हिंदी की नींव को मजबूत किया और आधुनिक काल (1850 के बाद) के लिए मार्ग प्रशस्त किया।